Murli related questions and answers - PART 6. इस PART (भाग) में ३ प्रश्न लिए गए है.
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✿✿ प्रश्न १ (Question 1) ✿✿
1.आत्मा अभिमानी स्थिति 2.Dehi abhimani sthiti 3.Videhi avastha 4.Ashariri sthiti kaisa bana -- चारो ही स्थित को अलग अलग स्पस्ट भी कीजिये भाई जी --
उत्तर: बहन, सर्वप्रथम हम आप को इन चारों स्थितियों के बारे में संक्षिप्त में बता देते है, फिर आगे इन स्थितियों को प्राप्त करने की सहज विधि भी बतलाते है। *** देही अभिमानी स्थिति ***
देही अर्थात आत्मा। तो आत्मा के मौलिक गुणों और शक्तियों के स्मृति स्वरूप में रहकर कर्म करना ही देही-अभिमानी स्थिति है। *** आत्मभिमानी स्थिति ***
साकार शरीर मे रह कर आत्मा के शुद्ध नैसर्गिक गुणों और शक्तियों की नेचुरल स्मृति में रहकर कर्म करने की स्थिति को आत्मभिमानी स्थिति कहते है। इस स्थिति में हमे स्वयं को आत्मा के गुणों और शक्तियों की स्मृति नही दिलानी पड़ती, बल्कि ये नेचुरल होता है। इस आत्मभिमानी स्थिति में सतयुग और त्रेता की समस्त आत्मये रहती है। *** अशरीरी स्थिति ***
अशरीरी अर्थात शरीर मे रह कर किया जाने वाला हर वो कर्म जिसमे सूक्ष्म या स्थूल किसी भी रूप में कोई फल की कामना और चाहना ना हो। अशरीरी स्थिति को ही फ़रिश्ता स्थिति कहते है। फ़रिश्ता अर्थात धरनी अर्थात मिट्टी अर्थात देह और देह के संबंध, पदार्थ, वस्तु, व्यक्ति और वैभवों से कोई भी रिश्ता नही। अर्थात अनासक्त और उपराम वृत्ति में रह कर किया गया कर्म अशरीरी स्थिति का द्योतक है। *** विदेही स्थिति ***
ये स्थिति राजयोगा की सबसे अंतिम और उत्कृष्ट स्थिति है। इसे हम कर्मातीत अवस्था या स्थिति के रूप में भी जानते है। ये स्थिति तो हमे पुरुषार्थ की पराकाष्ठा में अंत समय में ही मिलनी है। बहन, वैसे तो मुरलियों में बाबा ने समय प्रति समय अनेको पॉइंट हर स्थिति के अभ्यास और अनुभव के संबंध में बताए है। पर मैं आत्मा आप को इन स्थितियों का अनुभव करने के लिए बहुत सहज अभ्यास बताते है।
मीठे ब्रह्मा बाबा ने अव्यक्त होने से पहले सम्पूर्ण और संपन्न अव्यक्त फ़रिश्ता और कर्मातीत बनने की सहज विधि 3 मूल मंत्र के महावाक्यों द्वारा बता दिया।
१- निराकारी २- निर्विकारी ३- निरहंकारी ध्यान दे - इन तीन महावाक्यों का केवल अर्थ ही अत्यंत सारगर्भित नही है, बल्कि जिस क्रम में बाबा ने इसे उच्चारा, वो भी अत्यंत सारगर्भित है। ऐसा नही है कि पहले हमें निरहंकारी बनना है, फिर उसके बाद निराकारी और निर्विकारी बन जाएंगे, कदापि नही।
सबसे पहले हमें स्वयं को निराकारी अर्थात आत्मीक स्टेज पर रह कर हर कर्म करना है। जब ये स्टेज पक्की हो जाएगी तो देह देखने की जो सबसे बड़ी विकार है, जिससे ही अन्य सभी विकारो की उत्पत्ति होती है, उससे सहज ही छुटकारा मिल जाएगा । आगे, जब देह को ही नही देखेंगे तो किसी भी प्रकार का अहंकार आने का कोई सवाल ही नही है।
जब ये तीनो महावाक्य ब्राह्मण जीवन मे 75% के ऊपर धारण कर लेंगे तो सहज मायाजीत सो कर्मातीत अवस्था को नम्बरवार प्राप्त कर लेंगे।
इसलिए अलग अलग कई बिंदुओं को स्मृति में ना रख इन 3 मुख्य बिंदुओं पर फोकस करे और इनमें से भी मुख्य आत्म-स्मृति में रहने का अभ्यास बढ़ाते जाए। आप जैसे जैसे इस आत्म-स्मृति में आगे बढ़ते जाएंगे, वैसे वैसे ही देही-अभिमानी से लगायत अशरीरी स्थिति और अंतोगत्वा कर्मातीत अर्थात विदेही अवस्था को प्राप्त कर लेंगे। --- आत्मीक स्थिति को बढ़ाने के लिए tips ---
दृष्टि और वृति पर अटेन्शन देना है। दृष्टि हमारी भाई -भाई या भाई-बहन की हो।
वृत्ति में सर्व प्रति कल्याण और रहम-क्षमा की भावना, अपकारी पर भी उपकार की भावना, सतत ज्ञान का मनन - चिंतन और मन को भिन्न-भिन्न ड्रिल में बिजी रख कर आत्मीक स्थिति को श्रेष्ठ बनाया जा सकता है।
यह योग की कमेंटरी जरूर सुने -> RajYog guided commentaries
ओम शांति ✿✿✿ प्रश्न 2 ✿✿✿
Non gyani आत्माओं से interaction के समय, ये बिल्कुल भूल जाता है कि सभी आत्माएं है, बाह्यमुखता की अधिकता हो जाती है, इसके लिए कुछ युक्ति बताएं। - ग्रुप का हिस्सा होते हुए उपराम और न्यारे कैसे रहे, और वो भी अगर वो non bks हैं? उत्तर -> ओम् शांति। जब स्वयं को सदा सेवा क्षेत्र पर होने अर्थात रूहानी मैसेंजर और soldier होने की स्मृति में रहने का अभ्यास बढ़ाते जाएंगे तो सहज ही अज्ञानी आत्माओ से interaction के समय या अनेको हलचल में भी अपनी अवस्था को अचल, अडोल और एकरस बना सकेंगे।
शादी -विवाह या घर मे आयोजित किसी उत्सव में हमे अनेको अज्ञानी आत्माओ के संबंध संपर्क में तो आना ही पड़ता है। ऐसे समय पर हम सबसे कट कर नही रह सकते क्योंकि इससे फिर dis-service हो जाती है। इसलिए ग्रुप का हिस्सा होते भी उपराम और न्यारे बनने के लिए अलौकिक व्यवहार को धारण करे। साक्षीदृष्टा हो सबके पार्ट को देखते अपने पार्ट की स्मृति में रहे। कम बोलना, धीरे बोलना और मीठा बोलने का अभ्यास करें।
वास्तव में द्वापर से आत्मा को अनेक बातो का रस लेने की बुरी आदत बहुत गहरे समा गई है इसलिए अब सर्व रसों को त्याग एक रस में परमात्म रस में डूबने के पुरुषार्थ की मेहनत तो स्वयं ही करनी होगी ना। मन बार बार अनेको रस की तरफ भागेगा पर आप को अपने मन-बुद्धि को ज्ञान के मनन-चिंतन, आत्मीक दृष्टि-वृत्ति के अभ्यास में रत रखना होगा। ध्यान रखे - वास्तव में ऐसे लौकिक संगठन भी हमारे स्व-स्थिति को परखने के पेपर ही है। तो चेक करें कि अनेको हलचल में एकान्तवासी, एकाग्रचित्त और एकरस अवस्था मे रहने की आप की स्व-स्थिति कितनी शक्तिशाली है। ओम् शांति
✦✦✦ प्रश्न 3 ✦✦✦
Kal ki baba ki murli me ek point hai ki es purrane sharir ko sambhalna bhi hai aur bhulana bhi hai. Yeh kaise ho? Qyounki ki deh yaad aate hi deh ke naate rishte Maya sab attached ho jaati hai. Es purusharth ki kaise sahaj kare? * उत्तर -> ओम् शांति। आप का प्रश्न - एक तरफ देह को संभालना भी है तो दूसरी तरफ भुलाना भी है । ये कैसे संभव होगा ?..... ये संभव है भाई जी। बाबा ने इस संबंध में अनेको विधियां भी बताई हुई है। देह को संभालने और भुलाने का पुरुषार्थ एक साथ हो और सहज भी हो इसके लिए निम्न स्मृतियां रखे - स्वयं को इस देह और धरा पर मेहमान समझे। इस स्मृति से महान आत्मा बन जाएंगे। इसके लिए मम्मा के स्लोगन - *हर घड़ी अंतिम घड़ी* और बड़ी दीदी के स्लोगन - *अब घर जाना है* को स्मृति में रखे। विश्व नाटक के क्लाइमेक्स वा कल्प का अंत समय होने की स्मृति द्वारा नष्टोमोहा और साक्षीदृष्टा भाव का पार्ट पक्का रखे।
इस शरीर को शिवबाबा की अमानत समझ कर इसकी संभाल करनी है क्योंकि इस अंतिम शरीर द्वारा 21 जन्मो की प्रालब्ध बनानी है। पर ध्यान रखे कि शरीर की संभाल करने के बहुत ज्यादा चक्कर मे आत्मा में ताकत भरने का समय कही समाप्त ना हो जाये। देह में रहते देह के स्थान को सेवा स्थान और देह के संबधी आदि को सेवा के निमित्त समझना है। इस स्मृति से सहज ही इस सबसे अनासक्त वृत्ति से संबंध संपर्क में आएंगे। नए और पुराने शरीर के contrast का विचार सागर मंथन करने से - चिंतन करे कि ये पुराना पतित जडजड़ीभूत शरीर है, पुरानी जुत्ती है। अब हमें जल्द ही नई सतयुग में नया शरीर, नए संबंध, अविनाशी सुख-शांति और समृद्धि युक्त जीवन्मुक्त जीवन मिलने वाला है। इस चिंतन द्वारा इस पुरानी दुनिया और देह से आसक्ति नष्ट हो नई सतयुगी दुनिया और देवताई पवित्र शरीर की स्मृति रहने से दिव्य गुणों की धारणा सहज होती जाएगी। ट्रस्टी और निमित्तपन के भाव से - सबकुछ शिवबाबा का है। हमे अमानत में खयानत नही करना है।
साकारी सो आकारी सो निराकारी के अभ्यास द्वारा - कर्म करते समय स्वयं को देह में अवतरित हो कर्म करे, बाद में स्वयं को आकारी फ़रिश्ता सो निराकारी परमधाम निवासी होने की स्मृति स्वरूप का अभ्यास बढ़ाये। ..... इसके अलावा कई अन्य सहज विधियां भी बाबा मुरली में बताते रहते है, उस पर अमल कर के देह को संभालने और भूलने का पुरुषार्थ सहज रूप से एक साथ कर सकते है। ओम शांति ✦✦✦ प्रश्न 4 ✦✦✦
सुख और खुशी में क्या अंतर है?*
* उत्तर: ओम् शांति बहन। ज्ञान मार्ग में हम सभी जानते है कि आत्मा की मुख्य सात गुण - पवित्रता, ज्ञान, सुख, शांति, प्रेम, आनंद और शक्ति है, इसलिए ही आत्मा को सतोगुणी कहते है।
सुख तो आत्मा की शक्ति ही है पर जब आत्मा को किसी वस्तु, वैभव या व्यक्ति से सुख या दुख की अनुभूती वा प्राप्ति होती है तो उसको व्यक्त करने का साधन स्थूल या बाह्य कर्मेन्द्रियां ही बनती है, जिससे किसी को उस् मनुष्यात्मा के खुश या दुखी होने का संज्ञान होता है।
...इसलिये संक्षेप में कह सकते है कि सुख अंतर्मन वा आत्मा का प्रसंग है और खुशी उसका बाह्य प्रत्यक्ष स्वरूप। ओम् शांति
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