
अब मन नहीं रंगता होली में
𝐏𝐨𝐞𝐭: BrahmaKumaris, Mt Abu
रंगों की बौछार ले, होली त्योहार है आता
पीछे अपने कई सवाल, यह छोड़ जाता;
आज सारे रंग इतने बदरंग क्यूँ हो गए हैं
रंगों की असलियत सब कैसे भूल गए हैं |
फागुन के महीने में पहले इठलाती थी प्रकृति
होली के रंगों में भी अब तो आ गई है विकृति;
कहने को तो बड़ी चमक-दमक है इन रंगों में
पर ये क्षणिक जो उतरते जाते कुछ ही पलों में।
आज कोई रंग गहरा नहीं, जीवन जो रंगीं कर दे
स्थूल रंगों में असर कहाँ, उमंग-उल्लास जो भर दे।
होली का त्योहार हमें संगमयुग की याद दिलाता
जब परमात्मा आत्माओं संग मंगल-मिलन मनाता;
पवित्रता के श्वेत रंग में इन्द्रधनुष के सात रंग हैं
ज्ञान के सुनहरे रंग में समाये, खुशियों की तरंग है |
आइये, हम अपने आसपास बिखरे रंग की असलियत जाने
परमात्म रंग से खुद को रंग, सब पर आध्यात्मिक रंग डाले
प्रेम-एकता-सद्गुणों के रंग से, जीवन बने खुशहाल
मिटे भेदभाव, बढ़े भाईचारा, हो स्नेह का गुलाल |
प्रभु प्रेम के रंग से भरा हर पल हो इस होली में
कहना न पड़े फिर ये कि, अब मन नहीं रंगता होली में |
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