जीवन पूर्व निर्धारित नहीं है - जैसा की हममे से कई सोचते हैं, बल्कि अपने जीवन को अपने कर्मों के द्वारा संवारने या बिगाड़ने वाले हम आत्मा स्वयं है।
कर्मेन्द्रियों द्वारा किसी भी प्रकार के किये गए कार्य को,यहाँ तक कि जो हम सोचते हैं,वह भी सूक्ष्म कर्म ही है। जैसे हमारे विचार होंगे ,वैसे ही कर्म भी होंगे। कर्म को क्रिया व प्रतिक्रिया के रूप में समझा जा सकता है।
मैं यहाँ क्यों हूँ ? मैंने इस परिवार में जन्म क्यों लिया ? एक रूपवान तो दूसरा कुरूप क्यों है ? क्यों किसी को जीवन में सभी प्रकार की सफलता मिल जाती है ? क्यों कोई एक इतना समृद्ध होता है जबकि किसी के पास एक समय के लिए भोजन भी नहीं ? क्यों उसने मेरे साथ ऐसा किया ? क्यों ये और क्यों वो......?? क्या सभी का जीवन परमात्मा तय करता है ? नहीं !!
इन प्रकार के प्रश्नो का केवल एक ही अनादि सत्य है - कर्म सिद्धांत ,वह ये कि कोई भी अपने कर्म के परिणाम से बच नहीं सकता। अपने श्रेष्ठ अथवा निम्न कर्म के आधार पर ही प्रत्येक वर्त्तमान जन्म या भविष्य जन्म में सुख ,दुःख भोगता है। जीवन अनंत है। हम आत्मायें निरंतर इस यात्रा में हैं एवं वर्त्तमान कर्म के आधार पर ही भविष्य जन्म लेते हैं। कर्मफल से कोई भी नहीं बच सकता। कर्म सिद्धान अनुल्लंघनीय है। इसका उल्लंघन नहीं किया जा सकता।
इसलिए प्रत्येक आत्मा को सचेतन अवस्था में ही कार्य करना चाहिए। इसके लिए श्रेष्ठ व निम्न कर्म के सत्य ज्ञान की आवश्यकता होती है।
श्रेष्ठ कर्म :
वह कर्म जो पवित्र नीयत से किया जाए, जिससे सर्वप्रथम स्वयं लाभान्वित हों और अन्य भी लाभान्वित हों , और जो विश्व में शान्ति, सुख प्रेम फैला सके एवं जिससे परमात्मा भी प्रसन्न हो, वह निश्चित ही श्रेष्ठ कर्म होगा।
निम्न कर्म :
यदि कोई देहाभिमान ( ५ विकार ) के प्रभाव में कार्य करता है एवं जो स्वयं और दूसरों को दुःख दे या कोई वातावरण को अशुद्ध कर दे तो वह कार्य आत्मा की प्रकृति के विरुद्ध होता है और इसे ही विकर्म कहा जाता है।
कहानी का नैतिक अर्थ - मुझ आत्मा को श्रेष्ठ कर्म स्वयं के हेतु करना है। जैसा कर्म मैं आत्मा करूँगा वैसा ही फल मुझे प्राप्त होगा।
मनुष्य के प्रत्येक कर्म का एक नैतिक पहलू होता है। यदि किसी का कर्म नैतिक पहलू से श्रेष्ठ है तो उस व्यक्ति को निरंतर सफलता मिलती है परन्तु इसी प्रकार यदि किसी के कर्म नैतिक रूप से निम्न कोटि के हैं तो वह दुःख को प्राप्त होता है। इसी प्रकार यह विश्व चलता है। प्रत्येक आत्मा यह जानती है की क्या श्रेष्ठ है और क्या निम्न है।
नैतिक रूप से श्रेष्ठ व निम्न की व्याख्या में तो बहुत स्थान की आवश्यकता होगी किन्तु एक वाक्य में यह कहा जा सकता है कि यदि कोई व्यक्ति घृणा ,क्रोध ,असत्यता ,लोभ,अथवा काम के प्रभाव में देहाभिमानवश करता है तो वह निम्न कोटि या नकारात्मक होते हैं। इस प्रकार के कर्म समाज में असंगति,संघर्ष,तनाव व दुःख उत्पन्न करते हैं।
इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति शांति,संतुलन एवं स्थिर मन को धारण कर प्रेम,न्याय,करुणा आदि के साथ कार्य करता है एवं आत्माभिमानी स्थिति में स्थित रहता है तब वह कार्य श्रेष्ठ मन जाता है क्योंकि ऐसे कर्म समाज में सामंजस्य,शांति,एकता व ख़ुशी की बृद्धि करते हैं।
संकल्प एवं कर्म
प्रत्येक कर्म संकल्प के आधार पर होता है। मनुष्य के पास सबसे शक्तिशाली साधन है संकल्प शक्ति। संकल्प ही हमारी चेतना का निर्माण करते हैं एवं वृत्ति को प्रभावित करते हैं। हमें यह समझना आवश्यक है की संकल्प कितने महत्वपूर्ण हैं। इस संसार की हरेक मानव रचना संकल्पशक्ति के द्वारा ही निर्मित है। संकल्प ही हमारे संसार की रचना करते हैं। सकल्पों की गुणवत्ता बढ़ती है ज्ञान से। हरेक मनुष्य अपने ज्ञान अनुसार ही संकल्प की रचना करता है। ज्ञान ,विवेक को जागृत करता है। ज्ञानहीन व्यक्ति संकल्प भी अज्ञानता में उत्पन्न करता है।
संकल्पों की गुणवत्ता ही कर्मों की गुणवत्ता निर्धारित करता है तथानुसार कर्म हम पर अपना अच्छा व बुरा प्रभाव प्रभाव डालते हैं। यह फिर हमारी सोच को प्रभावित करता है। इसलिए सत्य ज्ञान के आधार पर शुद्ध संकल्प ही हमारे शांत व संतुष्ट जीवन का आधार है। राजयोग मैडिटेशन हमें संकल्पों को श्रेष्ठ बनाने एवं श्रेष्ठ कर्म करने में सहायक होते हैं। यह हमें विपरीत एवं हलचल वाली परिस्थितियों में भी अचल - अडोल रखता है।